बिमल रॉय की दो बीघा जमीन में एक ही जैसा एक दृश्य या परिस्थितियाँ दो बार आती
हैं जब किसान शंभू महतो का बेटा कन्हैया एक साथ ढेर सारे पैसे पाता है। पहली
बार वह अपने एक पाकेटमार दोस्त की मदद से एक साथ पचास रुपये पाता है और दौड़ता
हुआ अपने पिता के पास आता है जो अपनी दो बीघा जमीन बचाने के लिए जमीन आसमान एक
कर रहा है, हाथ से खींचने वाले रिक्शे को खींचते खींचते जिसके पाँवों में छाले
पड़ चुके हैं और दुनिया का सबसे बड़ा प्रश्न उसके लिए अपनी उस जमीन को बिकने से
बचाना है जिसे वह अपनी माँ मानता है। दूसरी बार जब वह देखता है की उसका बीमार
और जख्मी पिता फिर से रिक्शा खींचने निकल पड़ा है तो वह ईश्वर से बाकायदा क्षमा
माँग कर खुद चोरी करने निकलता है और एक भीड़ भाड़ वाली जगह से एक महिला का पर्स
छीन लाता है। उसमें से उसे एक साथ काफी पैसे मिलते हैं। एक ही फिल्म में एक ही
जैसे महसूस होते इन दो दृश्यों का विशेष महत्व है। जब पहली बार कन्हैया को एक
साथ पचास रुपये मिलते हैं और शंभू को अपना कर्ज उतारने के लिए जो पैसे चाहिए
उसमे इतने की ही कमी है तो लगता है कि शंभू अगर पैसे न भी ले तो कम से कम उसके
भीतर एक जद्दोजहद तो पैदा होगी ही। लेकिन ये जानते ही कि उसका बेटा ये पैसे
अपने पाकेटमार दोस्त से लेकर आया है, शंभू अपने आपे से बाहर हो जाता है। वह
जिस चारपाई पर बैठा है उसमें से ही एक बेंत तोड़ कर अपने बेटे को पीटना शुरू कर
देता है। उसकी पहली चिंता अब जमीन को बचाना नहीं है बल्कि ये है की उसके बेटे
ने एक किसान का बेटा होकर चोरी कैसे की। "किसान का बेटा होकर तूने चोरी की?
तेरी माँ को पता चलेगा तो वो तो मर जाएगी।" यहाँ अनायास ही पता चलता है कि
शंभू के लिए जमीन सबसे ज्यादा जरूरी तो है लेकिन ईमान की कीमत पर नहीं। यहाँ
पर एक गरीब भारतीय किसान का प्रतिनिधित्व करता शंभू अचानक ईमानदारी का पर्याय
बनकर खड़ा हो जाता है। विडंबना है कि इसी के विपरीत हथियार का सहारा लेकर गाँव
का जमींदार हरनाम सिंह उसकी जमीन को हड़पने के सपने देख रहा है। दूसरी बार जब
कन्हैया खुद पैसे चुरा कर लाता है तो उसे पता चलता है कि उसकी माँ कलकत्ते आ
गई है और उसे अपनी माँ से मिलवाने अस्पताल लाया जाता है जहाँ वह उसे बुरी तरह
जख्मी हालत में पाता है। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार उसे लगता है कि उसके
चोरी करने के कुकर्म के कारण ही उसकी माँ की ये हालत हुई है। इस बार हम उसके
भीतर की ईमानदारी देखते हैं जब वह रोता हुआ नोटों को फाड़ रहा है और शंभू थोड़ी
दूरी पर खड़ा ये देख रहा है। इस बार उसने अपने बेटे को उसने कुछ नहीं कहा लेकिन
वह खुद सारे नोट फाड़ने के बाद आकर अपने पिता से लिपट जाता है और कहता है कि
मैंने ही माँ को मार दिया। शायद उसे अपने पिता का कथन याद आता है कि अगर तेरी
चोरी के बारे में तेरी माँ को पता चला तो वह मर जाएगी। फिल्म कई स्तरों पर
चलती है जिसमें कन्हैया के वो दोस्त भी हैं जो जूते पॉलिश करते हैं पर वे अपने
स्तर पर उसकी मदद करते हैं, एक कड़वी जबान वाली मौसी है जो दिल की बहुत अच्छी
है और कुछ सवारियाँ हैं जो रिक्शे वाले से अजीब अजीब व्यव्हार करती हैं। कैसे
भूला जा सकता है वो दृश्य जिसमें एक लड़के लड़की (संभवतः प्रेमी प्रेमिका) की
चुहलबाजी में दो रिक्शे वाले एक दूसरे से रेस लगाते हैं। शंभू ने अभी कल रात
ही अपने बेटे से कहा है कि वह कुछ भी करके एक दिन का तीन रुपया कमा लिया
करेगा। पहले वो अपने बेटे से पूछता है - "क्या तू रोज का एक रुपया कमा लिया
करेगा?" बेटा खुशी से हामी भर देता है तो उसे गले लगाते हुए कहता है कि वो भी
कैसे भी कुछ भी करके रोज का तीन रुपया पैदा कर लिया करेगा क्योंकि इससे कम में
पूरे पैसे नहीं जुटाए जा सकते। अगले दिन एक लड़की दौड़ते हुए एक रिक्शे में जा
बैठती है और और उसका दोस्त या प्रेमी दौड़ता हुआ आता है और शंभू के रिक्शे में
बैठ जाता है और उस रिक्शे का पीछा करने का हुक्म देता है। शंभू और तेज और तेज
की आवाज पर अपनी गति बढ़ाता जाता है क्योंकि पीछे बैठे राजेंद्र यादव के हुलिए
वाले साहब किराए के पैसे बढ़ाते जा रहे हैं। "और तेज चलाओ, और तेज।" साफ दिखाई
देता है कि शंभू के पैरों की गति ने बगल से गुजर रहे ताँगे यानि घोड़े की गति
को मात दे दी है लेकिन साहब को इससे भी संतुष्टि नहीं है। वो कहते हैं, "और
तेज चल, मैं तुझे दो रुपये दूँगा।" शंभू के चेहरे पर मुस्कराहट आ जाती है और
वह अपनी गति बढ़ा देता है। इधर साहब पैसे बढ़ाते जा रहे हैं, "और तेज, तीन
रुपये।" शंभू अपनी गति और बढ़ाता है। साहब चार रुपये का प्रस्ताव देता है। शंभू
उत्साह में आता जा रहा है, "पाँच रुपये बाबू?" साहब तब तक छह रुपये कह चुका
है। "छह रुपये बाबू?" "हाँ हाँ छह रुपये देगा, जल्दी चलो।" उत्साहित शंभू को
दो दिन की कमाई सामने दिखाई देती है और वह अपने से आगे चल रहे रिक्शे को पछाड़
देता है। शायद उसके सामने वाले रिक्शे के लिए ये महज एक रिक्शों की एक दौड़ है
मगर शंभू के लिए ये अपने अस्तित्व की लड़ाई है। वह आगे निकलता है और इसी पल
उसके रिक्शे के पहिये जिन्होंने कभी सोचा नहीं था की उन्हें ये वेग भी कभी मिल
सकता है, निकल जाते हैं और शंभू महतो का एक्सीडेंट हो जाता है।
सेल्युलाइड पर लिखी गई इस कविता में सिर्फ एक बार ऐसा लगता है कि ये एक फिल्म
है जब इसमें एक फिल्मी संयोग की गुंजाईश निकाली गई है। शंभू की पत्नी पारो उसे
खोजते हुए कलकत्ते आती है और गलत हाथों में फँस जाती है। वहाँ से बच कर भागते
वक्त वह एक मोटर के नीचे आ जाती है। खून से लथपथ पड़ी पारो को अस्पताल ले जाने
के लिए कुछ राहगीर रिक्शे का इंतजाम करने दौड़ते हैं। वहीं शंभू भी अपने रिक्शे
के साथ खड़ा है। उसे जब पता चलता है कि कोई एक्सीडेंट केस है और पीड़ित खून से
लथपथ है तो वह कहता है अगर रिक्शा खून वून से खराब हो गया तो वह पूरे पाँच
रुपये लेगा। यह वही शंभू है जो कुछ समय पहले शहर आया था तो कह रहा था की शहर
में तो बिना पैसे के कुछ भी नहीं हो सकता। उस शंभू की संवेदनाएँ खत्म होती
दिखाई देती हैं। यहाँ शहर के उस चरित्र की बखूबी झलक मिलती है जो बहुत जल्दी
एक साफदिल और सरल आदमी की संवेदनाएँ मार देता है जैसा माजिद मजीदी की फिल्म 'द
साँग ऑफ स्पैरो' में करीम के साथ होता है जब उसे पता चलता है कि उसकी बीवी ने
कबाड़ में से उठा कर लाया गया एक दरवाजा किसी पड़ोसी को दे दिया है और वह उसे
वापस ले आता है। खैर, शंभू की संवेदनाओं पर शहर का असर थोड़ा हुआ जरूर है पर वे
मरी नहीं हैं। वह आता है और वहाँ पत्नी को पाता है। इसके बाद की कहानी सिर्फ
इतनी है कि बचाए हुए सारे पैसे इलाज में खर्च हो जाते हैं और इधर पैसे चुकाने
की मियाद खत्म हो जाने पर उसकी जमीन नीलाम कर दी जाती है और उस पर शानदार
फैक्ट्री बनाई जाती है।
फिल्म का सबसे मर्मांतक किंतु सबसे सहज दृश्य है जब शभु अपनी पत्नी और बेटे के
साथ फैक्ट्री की बाड़ के पास खड़ा अपनी जमीन को पहचानने की कोशिश कर रहा है।
बेटा कहता है, "माँ वह देखो जहाँ से धुआँ उठ रहा है न, वहीं हमारा मकान था।"
माँ कहती है, "हाँ, और वहाँ था मेरा रसोईघर।" उससे ये दृश्य देखा नहीं जा रहा
और वह अपने पिता से कहता है, "चलो बापू अब चलें।" शंभू और वे दोनों जाने को
उद्यत होते हैं लेकिन मानो अभी इतना ही बस नहीं हुआ। शंभू उस जमीन से, जिसे वह
अपनी माँ मानता था, थोड़ी सी मिट्टी उठता है और चौकीदार आकर उसका गिरेबान पकड़
कर उसे चोर कहता हुआ पूछता है की यहाँ से क्या चुराया, दिखा। शंभू मुट्ठी खोल
कर वह मिट्टी गिरा देता है। तीनों वहाँ से चल देते हैं और बिलकुल अंतिम दृश्य
में वे ऐसी जगह खड़े हैं जहाँ के आगे अब रास्ता नहीं दिखाई देता सिर्फ अनंत
आसमान ही दिखाई दे रहा है। वे तीनों एक बार पलट कर अपनी जमीन की और देखते हैं
और फिर उस अनंत आसमान की ओर चल पड़ते हैं। किसान के अंतहीन त्रासदी की यह
महागाथा यहीं खत्म हो जाती है।
निश्चित ही फिल्म के सारे पहलुओं पर दशकों से बहुत कुछ लिखा गया और कहा गया है
चाहे वह सलिल चौधरी की कहानी पर गुलजार की लिखी गई शानदार स्क्रिप्ट हो या फिर
कमल बोस के बेहतरीन दृश्य। बलराज साहनी के अभिनय के बारे में कुछ भी कहना सूरज
को दिया दिखाने जैसा है और वह अभिनय यहाँ चरम पर दिखाई देता है। इसके पीछे
अभिनय के अलावा उनकी मेहनत थी। उन्होंने रिक्शे वालों के बीच रह कर रिक्शा
चलाने का बाकायदा प्रशिक्षण लिया था और रिक्शे वालों के बीच उनके अपने बनकर
काफी दिनों तक रहे थे। फिल्म ने अंतरराष्ट्रीय समारोहों में अपनी दमदार
उपस्थिति दर्ज कराई थी और कई राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार बटोरे थे। लालू
उस्ताद के रूप में हिंदी फिल्मों के कामेडियन जगदीप के बिलकुल शुरुआती
किशोरावस्था के दिनों को देखना सुखद है। नासिर हुसैन हमेशा की तरह अपनी भूमिका
से न्याय करते हैं। फिल्म कहीं न कहीं 1948 में आई डी सिका की फिल्म द
बाइसिकिल थीफ से प्रेरित लगती है और उस फिल्म के कुछ दृश्य इस फिल्म में थोड़े
फेरबदल के साथ दिखाई देते हैं। बच्चे को डाँटने मारने वाले दृश्य हों या फिर
चोरी के लिए उद्यत हो रहा कन्हैया जो की ठीक उसी उधेड़बुन में महिला के पर्स को
देखता है जैसे अंतोनियो अंतिम दृश्य में लावारिस खड़ी एक साईकिल को देखता है और
आखिरकार उसे चुरा कर भागता है।
फिल्म में पहले पारो को मर जाना था और शंभू को उसकी जमीन वापस मिल जानी थी।
बिमल रॉय ने जब यह फिल्म अपनी पत्नी को दिखाई तो वे इस अंत से बिलकुल सहमत
नहीं हुईं और उन्होंने बिमल रॉय को इसके अंत को बदलने के लिए अपने तर्कों से
सहमत कर लिया। बाद में बिमल रॉय ने फिल्म को री-शूट किया और आज हमारे खजाने
में यह फिल्म वैसे ही हमेशा के लिए एक दस्तावेज की तरह सुरक्षित है जैसे
प्रेमचंद की गोदान।